दिल्ली पुलिस के सभी आयुक्तों को अमूमन इतना लंबा कार्यकाल नहीं मिलता, जितना पटनायक के हिस्से आया है। 1985 बैच के ओडिशा कॉडर के आईपीएस अधिकारी पटनायक एकमात्र ऐसे पुलिस आयुक्त रहे, जिनके सामने पुलिसकर्मियों ने नारे लगाकर कहा, ‘हमारा सीपी कैसा हो, किरण बेदी या दीपक मिश्रा जैसा हो’।
पिछले डेढ़-दो दशक के दौरान दिल्ली पुलिस की कमान संभालने वाले किसी भी आयुक्त के समय में ऐसी स्थिति देखने को नहीं मिली थी। जेनएयू कांड, जामिया कांड, तीस हजारी कांड, शाहीन बाग और अब दिल्ली दंगे, जैसे बड़े कांड उनके साथ जुड़ गए हैं। एकमात्र पटनायक का ऐसा कार्यकाल रहा, जिसमें दिल्ली की कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत दोभाल को एक नहीं, बल्कि दो बार मोर्चा संभालना पड़ा।
पटनायक ने 30 जनवरी 2017 को दिल्ली के पुलिस आयुक्त की कमान संभाली थी। धमेंद्र कुमार, दीपक मिश्रा और अजय कश्यप जैसे आईपीएस अधिकारियों का नाम भी पुलिस आयुक्त पद के लिए चला, लेकिन पटनायक अपने ऊंचे रसूख के चलते दिल्ली पुलिस आयुक्त बन गए। मीडिया में ऐसी खबरें भी आई कि उन्हें पीएमओ के एक बड़े अधिकारी का आशीर्वाद प्राप्त है। दिल्ली पुलिस के मौजूदा स्पेशल सीपी ने नाम न छापने की शर्त पर कई खुलासे किए हैं।
उनके मुताबिक, पटनायक ने दिल्ली पुलिस को कमजोर बना दिया है। दूसरे राज्यों की तुलना में दिल्ली पुलिस आयुक्त ही नहीं, बल्कि यहां का पुलिस बल भी बेहद पावरफुल माना जाता है। अपराधों की जांच का मामला हो या उन्हें पकड़ने की बात, दिल्ली पुलिस अधिकांश मामलों में सदैव आगे रही है। अब दो तीन साल से पुलिस बल का जोश वैसा नहीं रहा। अगर पुलिस सही भी है तो कई तरह के अपराधों में उसे जानबूझकर कमजोर बनने के लिए मजबूर किया गया है। खासतौर पर राजनीतिक दखल से जुड़े मामलों में पुलिस का दुरुपयोग हुआ है। दिल्ली सरकार को लेकर या सीएए जैसे मुद्दे पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों में भी पुलिस को सोची समझी नीति के तहत कमजोर किया गया।
सूत्रों के अनुसार, पुलिस आयुक्त यदि नियमानुसार काम करते तो कई तरह की घटनाएं जो बाद में बड़ी बन गईं, उन पर समय रहते काबू पाया जा सकता था। दिसंबर 2019 में सीएए को लेकर विरोध प्रदर्शन हुआ। जेएनयू की घटना भी हो गई। इसमें पुलिस की खासी किरकिरी हुई। जामिया में हुई घटना के बाद दिल्ली पुलिस इस उलझन में रही कि प्रदर्शनकारियों को कहां पर प्रदर्शन करने की इजाजत दी जाए।
दिल्ली पुलिस के पास ऐसी सूचना नहीं थी कि कोई बाहर से आकर दिल्ली को हिंसा की आग में धकेलने की साजिश रच रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत दोभाल को दिल्ली पुलिस की मदद के लिए उतरना पड़ा। आधी रात को दोभाल ने दिल्ली पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक और उनके सिपहसालारों की बैठक ली। दोभाल ने अपने सूत्रों से यह पता लगाया कि हरियाणा के मेवात इलाके से सैंकड़ों लोगों को गुमराह कर दिल्ली लाया जा रहा है।
इनका मकसद कुछ इलाकों में हिंसा कराने के अलावा शुक्रवार को जुम्मे की नमाज के बाद करीब 14 इलाकों में बड़े पैमाने पर सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना था। दिल्ली पुलिस इस इनपुट से अनभिज्ञ थी। वह प्रदर्शनकारियों को तितर बितर करने की प्लानिंग में जुटी थी। उसे इस बड़े खतरे का आभास नहीं था। अजीत दोभाल ने रात को पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक, विशेष आयुक्त कानून व्यवस्था, संयुक्त आयुक्त और 6 जिलों के डीसीपी के साथ बैठक कर उन्हें ज़रूरी दिशा निर्देश दिए।
पुलिसकर्मियों ने आयुक्त अमूल्य पटनायक के सामने नारेबाजी कर कहा, हमारा सीपी कैसा हो, किरण बेदी और दीपक मिश्रा जैसा हो। इस तरह के नारे लगाने का मतलब समझा जा सकता है। पुलिस के एक रिटायर्ड अधिकारी के मुताबिक, इस तरह के नारों से पुलिस का मनोबल टूटता है। जब सरेआम पुलिस कर्मियों की पिटाई होती है और वे कुछ न कर पाएं। ऐसी हालत में पीड़ित पुलिसकर्मी अपने सीपी की ओर देखता है। ऐसी नाज़ुक हालत में उनका सीपी उन्हें कोई आश्वासन देने में नाकाम रहता है। शाहीन बाग, जेएनयू और जामिया जैसी घटनाएं, ये सब राजनीतिक हस्तक्षेप का नतीजा हैं।
अगर पुलिस तय कानून के मुताबिक कार्रवाई करती है तो इनमें से कोई भी गतिरोध बुरे अंजाम तक नहीं पहुंचता। पुलिस आयुक्त किसी न किसी तरह उस स्थिति को हल कर सकता था, लेकिन मौजूदा सीपी ने कथित तौर पर कानून के तहत काम करने की बजाए राजनीतिक हस्तक्षेप को सीधे तौर पर स्वीकार कर लिया। इसका बड़ा रूप अब दिल्ली दंगों के रूप में देखने को मिला है। दंगों के पीड़ित, दिल्ली सरकार और विपक्षी नेता, सभी ने एक साथ दिल्ली पुलिस की आलोचना करनी शुरू कर दी। पुलिस को इस दंगे में चोट भी लगी और ऊपर से मीडिया में पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाए गए।